कबीर के दोहे : कबीर के दोहों में पाखंड की आलोचना और युवाओं पर उसका प्रभाव

यह लेख संत कबीरदास के दोहों के माध्यम से समाज में व्याप्त पाखंड की आलोचना करता है और उसके युवाओं पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण करता है। कबीर ने अपने दोहों में पाखंड के खिलाफ कठोर शब्दों का प्रयोग किया है और सच्चाई, ईमानदारी, और नैतिकता के महत्व को उजागर किया है। लेख में पाखंड से होने वाले सामाजिक और आध्यात्मिक नुकसान पर भी चर्चा की गई है, जिससे पाठकों को इस मुद्दे की गंभीरता का बोध हो सके।

Aug 13, 2024 - 09:31
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कबीर के दोहे : कबीर के दोहों में पाखंड की आलोचना और युवाओं पर उसका प्रभाव

INDC Network : जानकारी : पाखंड पर कबीर के दोहे और उनका प्रभाव: एक विस्तृत दृष्टिकोण

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परिचय: पाखंड एक ऐसा शब्द है जो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक समाज के विभिन्न पहलुओं में देखा जाता है। पाखंड का सीधा अर्थ है दिखावा, झूठ, और वास्तविकता से दूर होना। यह वह अवस्था है जब व्यक्ति अपने आंतरिक विचारों और विश्वासों के विपरीत आचरण करता है, केवल दूसरों को प्रभावित करने के उद्देश्य से। पाखंड का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, विशेषकर युवाओं पर, जिनकी मानसिकता और व्यवहार पर यह गहरा असर डालता है। इस लेख में, हम पाखंड पर संत कबीर के दोहों का अध्ययन करेंगे, पाखंड के युवाओं पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण करेंगे, और इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे कि क्या पाखंड करना सही है।

पाखंड पर कबीर के दोहे: संत कबीरदास, भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक, ने अपने समय में समाज में व्याप्त पाखंड और ढोंग के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई। उनके दोहे सरल, संक्षिप्त, और गहरे अर्थों से भरे हुए हैं, जो सीधे समाज के पाखंड पर चोट करते हैं। यहाँ कुछ प्रमुख दोहे प्रस्तुत हैं:
  1. "माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।
    कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।"

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    इस दोहे में कबीर कहते हैं कि यदि व्यक्ति केवल माला फेरने में लगा हुआ है और उसके मन में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है, तो वह केवल पाखंड कर रहा है। वास्तविक साधना वही है, जो मन को शुद्ध करे और उसे सच्चाई के मार्ग पर ले जाए।

  2. "कंकर पत्थर जोड़ी के, मस्जिद लई चुनाय।
    ता ऊपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय?"

    कबीर इस दोहे में धार्मिक पाखंड की आलोचना करते हैं। वे कहते हैं कि केवल मस्जिद बनाना और वहां जाकर बांग देना पर्याप्त नहीं है; सच्ची भक्ति मन में होती है। ईश्वर कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर है।

  3. "पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
    ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।"

    इस दोहे में कबीर मूर्तिपूजा के पाखंड पर प्रहार करते हैं। वे कहते हैं कि अगर पत्थर की पूजा करने से भगवान मिलते, तो पूरे पहाड़ की पूजा क्यों न की जाए? उनकी नज़र में, ऐसे पाखंड के बजाय वह चक्की अधिक महत्वपूर्ण है, जो संसार के लिए आटा पीसती है।

  4. "साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
    सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय।"

    इस दोहे में कबीर एक आदर्श साधु के गुण बताते हैं, जो पाखंड से परे होता है। एक सच्चा साधु वह है जो सार्थक चीजों को ग्रहण करता है और बेकार, दिखावटी चीजों को त्याग देता है।


पाखंड का युवाओं पर प्रभाव: युवाओं का मन और मानसिकता अत्यंत संवेदनशील होती है। वे अपने आस-पास के माहौल, बड़े-बुजुर्गों के व्यवहार, और समाज के विभिन्न पहलुओं से बहुत प्रभावित होते हैं। पाखंड, जो समाज में गहराई से व्याप्त है, युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
  1. मूल्य प्रणाली का कमजोर होना: पाखंड से युवाओं के सामने नैतिकता और सच्चाई का महत्व कम हो जाता है। जब वे देखते हैं कि उनके आस-पास के लोग केवल दिखावे के लिए धार्मिक या नैतिक आचरण का पालन करते हैं, तो वे भी उसी राह पर चल पड़ते हैं। इससे उनके मूल्य प्रणाली कमजोर होती है।

  2. सच्चाई से दूर जाना: पाखंड का प्रभाव यह होता है कि युवा सच्चाई से दूर हो जाते हैं। वे दिखावे और बाहरी आडंबर को ही जीवन का सत्य मानने लगते हैं। इससे उनकी सोचने-समझने की क्षमता पर असर पड़ता है और वे वास्तविकता से दूर हो जाते हैं।

  3. धार्मिक आस्था में कमी: पाखंड, विशेषकर धार्मिक पाखंड, युवाओं में धर्म और अध्यात्म के प्रति अविश्वास पैदा करता है। जब वे देखते हैं कि धर्म का पालन करने वाले लोग स्वयं उन नियमों का पालन नहीं करते जिनकी वे दूसरों से अपेक्षा करते हैं, तो उनका विश्वास धर्म और धार्मिक अनुष्ठानों से उठ जाता है।

  4. समाज के प्रति उदासीनता: पाखंड से युवाओं में समाज के प्रति उदासीनता का भाव पैदा होता है। वे समाज को एक दिखावटी और झूठे ढांचे के रूप में देखने लगते हैं और उसमें भाग लेने से कतराने लगते हैं।


क्या पाखंड करना सही है? : पाखंड के कई रूप होते हैं, और यह समाज में एक गंभीर समस्या के रूप में उभर कर आता है। पाखंड करना नैतिक रूप से और सामाजिक रूप से गलत है। इसके कई कारण हैं:
  1. विश्वासघात: पाखंड करना स्वयं के और समाज के प्रति विश्वासघात है। यह वह स्थिति है जब व्यक्ति दिखावे के लिए कुछ करता है, जबकि उसका मन और इरादा कुछ और होता है। यह विश्वासघात न केवल दूसरों के प्रति है, बल्कि स्वयं के प्रति भी है।

  2. सामाजिक नुकसान: पाखंड से समाज में झूठ और दिखावे की संस्कृति का विकास होता है। इससे समाज की नींव कमजोर होती है और उसमें विश्वास और पारदर्शिता की कमी आती है। यह समाज के लिए हानिकारक है, क्योंकि इससे पारस्परिक विश्वास का ह्रास होता है।

  3. आध्यात्मिक पतन: पाखंड करने से व्यक्ति का आध्यात्मिक पतन होता है। वास्तविकता और सच्चाई से दूर रहकर, व्यक्ति केवल बाहरी दिखावे पर निर्भर हो जाता है, जिससे उसका आत्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। सच्चे आध्यात्मिक विकास के लिए ईमानदारी और सच्चाई अनिवार्य है।

  4. धार्मिक और नैतिक पतन: पाखंड धार्मिक और नैतिक रूप से भी अवांछनीय है। धर्म और नैतिकता का मूल उद्देश्य मनुष्य को सच्चाई, ईमानदारी और नैतिकता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है। पाखंड इन मूल्यों के विपरीत है और इसका अनुसरण करना धर्म और नैतिकता के पतन का कारण बनता है।


निष्कर्ष: पाखंड एक गंभीर सामाजिक समस्या है, जो व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर गहरे नकारात्मक प्रभाव डालती है। संत कबीरदास ने अपने दोहों में पाखंड के खिलाफ जो बातें कही हैं, वे आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। पाखंड से युवाओं की मानसिकता और आचरण पर जो प्रभाव पड़ता है, वह समाज के लिए हानिकारक है। पाखंड करना किसी भी रूप में सही नहीं है, क्योंकि यह समाज में अविश्वास, नैतिक पतन, और आध्यात्मिक पतन को बढ़ावा देता है। हमें एक सच्चे और ईमानदार जीवन की ओर बढ़ने का प्रयास करना चाहिए, जिसमें पाखंड का कोई स्थान न हो। समाज को सशक्त बनाने के लिए ईमानदारी, सच्चाई, और नैतिकता के मूल्यों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है।

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